Saturday, April 11, 2015

गुलिस्ता है ये जहाँ,मगर कोई गुल मेरे नाम का नही
मुझसे है दुनिया को वास्ता,पर कोई मेरे काम का नही

लम्हा लम्हा मिलके बनती है जंजीर-ऐ-वक्त यहाँ
एक लम्हा भी अपनी जिंदगी में आराम का नही

चढ़ते आफताब को सलाम करना जाने ये जमाना
मगर मैं जानू इतना के कोई ढलती शाम का नही

नजर आया दूर से ही,कोई चराग-ऐ-नूर अफ़्शा वहाँ
पोहचे नजदीक तो जाना ये नूर मेरे मकाम का नही

मैखाने होकर आए फ़िर भी गमगीन ही रहे
क्या जाने अब वो पहलेसा असर किसी जाम का नही

No comments:

Post a Comment