Saturday, May 30, 2015
Wednesday, May 27, 2015
अजनबी दोस्ती……
दर्द में कुछ कमी-सी लगती है,
जिन्दगी अजनबी-सी लगती है,
एतबारे वफ़ा अरे तौबा
दुश्मनी दोस्ती-सी लगती है,
मेरी दीवानगी कोई देखे
धुप भी चांदनी-सी लगती है ,
सोंचता हूँ की मैं किधर जाऊँ
हर तरफ रौशनी-सी लगती है,
आज की जिन्दगी अरे तौबा
मीर की सायरी सी लगती है ,
शाम-ऐ-हस्ती की लौ बहुत कम है,
ये सहर आखरी-सी लगती है ,
जाने क्या बात हो गयी यारों
हर नजर अजनबी-सी लगती है,
दोस्ती अजनबी-सी लगती है…….…
दर्द में कुछ कमी-सी लगती है,
जिन्दगी अजनबी-सी लगती है,
एतबारे वफ़ा अरे तौबा
दुश्मनी दोस्ती-सी लगती है,
मेरी दीवानगी कोई देखे
धुप भी चांदनी-सी लगती है ,
सोंचता हूँ की मैं किधर जाऊँ
हर तरफ रौशनी-सी लगती है,
आज की जिन्दगी अरे तौबा
मीर की सायरी सी लगती है ,
शाम-ऐ-हस्ती की लौ बहुत कम है,
ये सहर आखरी-सी लगती है ,
जाने क्या बात हो गयी यारों
हर नजर अजनबी-सी लगती है,
दोस्ती अजनबी-सी लगती है…….…
Thursday, May 21, 2015
तेरी मुश्किल न बताऊंगा, चला जाऊंगा,
अश्क आँखों में छुपाऊंगा, चला जाऊंगा,
मुद्दतों बाद मैं आया हूँ पुराने घर में
खुद को जी भर के रुलाऊंगा, चला जाऊंगा|
उन मौहलत से कुछ भी नहीं लेना मुझ को,
बस तुम्हें देखूंगा, चला जाऊंगा,
चन्द बातें मुझे बच्चों की तरह प्यारी हैं,
उनको सीने से लगाऊंगा, चला जाऊंगा,
अपनी देहलीज़ पे कुछ देर पड़ा रहने दो
अश्क आँखों में चुपाऊंगा, चला जाऊंगा|
अश्क आँखों में छुपाऊंगा, चला जाऊंगा,
मुद्दतों बाद मैं आया हूँ पुराने घर में
खुद को जी भर के रुलाऊंगा, चला जाऊंगा|
उन मौहलत से कुछ भी नहीं लेना मुझ को,
बस तुम्हें देखूंगा, चला जाऊंगा,
चन्द बातें मुझे बच्चों की तरह प्यारी हैं,
उनको सीने से लगाऊंगा, चला जाऊंगा,
अपनी देहलीज़ पे कुछ देर पड़ा रहने दो
अश्क आँखों में चुपाऊंगा, चला जाऊंगा|
Sunday, May 17, 2015
मेरे दिल की है यही आरजू मुझे तू ही बस मिला करे
यूही चाहे मुझको तामम उम्र, ना शिकायते गिला करे
मेरी चाहतें मेरी ख्वाहिशें मेरी ज़िंदगी है तेरे लिए
मेरी रब से येही दुआ है बस .तुझे कोई न मुझ से जुदा करे
मेरे ख्वाब मेरे ये रत जगे मेरी नींद भी है तेरे लिए
मेरी ज़िंदगी जो बची है अब तेरे नाम इस को खुदा करे
मुझे ज़िंदगी से गिला नही, मुजे तुझ से बस येही आस है
मैं भी चाहूँ तुझ को सदा यूही तू वफ़ा करे या जफा करे
ये वह फासले हैं मेरे सनम जिन्हे कोई भी ना मिटा सका
ये तो फैसले है नसीब के इन्हे कैसे कोई मिटा करे
मेरी ज़िंदगी मे खिजां है बस, ना बाहर कभी आ सकी
येही अश्क मेरा नसीब हैं कोई गुल खुशी का खिला करे|
यूही चाहे मुझको तामम उम्र, ना शिकायते गिला करे
मेरी चाहतें मेरी ख्वाहिशें मेरी ज़िंदगी है तेरे लिए
मेरी रब से येही दुआ है बस .तुझे कोई न मुझ से जुदा करे
मेरे ख्वाब मेरे ये रत जगे मेरी नींद भी है तेरे लिए
मेरी ज़िंदगी जो बची है अब तेरे नाम इस को खुदा करे
मुझे ज़िंदगी से गिला नही, मुजे तुझ से बस येही आस है
मैं भी चाहूँ तुझ को सदा यूही तू वफ़ा करे या जफा करे
ये वह फासले हैं मेरे सनम जिन्हे कोई भी ना मिटा सका
ये तो फैसले है नसीब के इन्हे कैसे कोई मिटा करे
मेरी ज़िंदगी मे खिजां है बस, ना बाहर कभी आ सकी
येही अश्क मेरा नसीब हैं कोई गुल खुशी का खिला करे|
Thursday, May 14, 2015
किन राहों से दूर है मंजिल कौन सा रास्ता आसान है
हम जब थक कर रुक जायेंगे औरों को समझायेंगे
अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर -दिल हो मुमकिन है
हम तो उस दिन रो देंगे जिस दिन धोखा खाएँगे
तनहा हम रो लेंगे महफ़िल महफ़िल गायेंगे
जब तक आंसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनायेंगे
तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं
देर न करना घर जाने में वरना घर खो जायेंगे
हम जब थक कर रुक जायेंगे औरों को समझायेंगे
अच्छी सूरत वाले सारे पत्थर -दिल हो मुमकिन है
हम तो उस दिन रो देंगे जिस दिन धोखा खाएँगे
तनहा हम रो लेंगे महफ़िल महफ़िल गायेंगे
जब तक आंसू पास रहेंगे तब तक गीत सुनायेंगे
तुम जो सोचो वो तुम जानो हम तो अपनी कहते हैं
देर न करना घर जाने में वरना घर खो जायेंगे
बेनाम सा ये दर्द , ठहर क्यों नही जाता
जो बीत गया है , वह गुज़र क्यों नही जाता
सब कुछ तो है , क्या ढूँढती रहती है निगाहें
क्या बात है , मैं वक्त पे घर क्यों नही जाता
वह इक ही चेहरा तो नही सारे जहाँ में
जो दूर है वह दिल से उतर क्यों नही जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब में उधर क्यों नही जाता
वह नाम जो न जाने कब से , ना चेहरा ना बदन है
वह खवाब अगर है तो बिखर क्यो नही जाता ”
जो बीत गया है , वह गुज़र क्यों नही जाता
सब कुछ तो है , क्या ढूँढती रहती है निगाहें
क्या बात है , मैं वक्त पे घर क्यों नही जाता
वह इक ही चेहरा तो नही सारे जहाँ में
जो दूर है वह दिल से उतर क्यों नही जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब में उधर क्यों नही जाता
वह नाम जो न जाने कब से , ना चेहरा ना बदन है
वह खवाब अगर है तो बिखर क्यो नही जाता ”
Wednesday, May 13, 2015
ख़ुद को मेरा दोस्त बनाने की जरूरत क्या है ,
दोस्त बनके दगा देने की जरूरत क्या है ,
अगर कहा होता तो हम ख़ुद ही चले जाते ,
यू आपको चेहरा छुपाने की जरूरत क्या है ,
सोचा था रहेंगे एक घर बनाके बड़े सुकून से ,
न मिल सका सुकून तो महलों की जरूरत क्या है ,
है कौन मेरा जो बहाता मेरी मजार पर अश्क ,
मुश्कुराते रहना तुम मुझे तेरे अश्को की जरूरत क्या है ,
मैं तो जान भी दे सकता था तुझपे ऐ दोस्त ,
पर इस तरह मुझे आजमाने की जरुरत क्या है ,
दबा हूँ मिटटी में इस कदर की बड़ा दर्द है ,
मुझ पर फूल डाल कर और दबाने की जरुरत क्या है ,
मुझ से कर के दोस्ती अगर पूरा हो गया हो शौक ,
तो किसी और के जज्बातों से खेलने की जरुरत क्या है .
दोस्त बनके दगा देने की जरूरत क्या है ,
अगर कहा होता तो हम ख़ुद ही चले जाते ,
यू आपको चेहरा छुपाने की जरूरत क्या है ,
सोचा था रहेंगे एक घर बनाके बड़े सुकून से ,
न मिल सका सुकून तो महलों की जरूरत क्या है ,
है कौन मेरा जो बहाता मेरी मजार पर अश्क ,
मुश्कुराते रहना तुम मुझे तेरे अश्को की जरूरत क्या है ,
मैं तो जान भी दे सकता था तुझपे ऐ दोस्त ,
पर इस तरह मुझे आजमाने की जरुरत क्या है ,
दबा हूँ मिटटी में इस कदर की बड़ा दर्द है ,
मुझ पर फूल डाल कर और दबाने की जरुरत क्या है ,
मुझ से कर के दोस्ती अगर पूरा हो गया हो शौक ,
तो किसी और के जज्बातों से खेलने की जरुरत क्या है .
Monday, May 11, 2015
कई बार रातों में उठकर दूध गरम कर लाती होगी
मुझे खिलाने की चिंता में खुद भूखी रह जाती होगी
मेरी तकलीफों में अम्मा, सारी रात जागती होगी !
बरसों मन्नत मांग गरीबों को, भोजन करवाती होंगी !
सुबह सबेरे बड़े जतन से वे मुझको नहलाती होंगी
नज़र न लग जाए, बेटे को काला तिलक, लगाती होंगी
चूड़ी ,कंगन और सहेली, उनको कहाँ लुभाती होंगी ?
बड़ी बड़ी आँखों की पलके,मुझको ही सहलाती होंगी !
सबसे सुंदर चेहरे वाली, घर में रौनक लाती होगी
अन्नपूर्णा अपने घर की ! सबको भोग लगाती होंगी
दूध मलीदा खिला के मुझको,स्वयं तृप्त हो जाती होंगी !
गोरे चेहरे वाली अम्मा ! रोज न्योछावर होती होंगी !
रात रात भर सो गीले में ,मुझको गले लगाती होगी
अपनी अंतिम बीमारी में ,मुझको लेकर चिंतित होंगीं
बच्चा कैसे जी पायेगा ,वे निश्चित ही रोई होंगी !
सबको प्यार बांटने वाली,अपना कष्ट छिपाती होंगी !
अपनी बीमारी में, चिंता सिर्फ लाडले ,की ही होगी !
गहन कष्ट में भी, वे ऑंखें , मेरे कारण चिंतित होंगी !
अपने अंत समय में अम्मा ,मुझको गले लगाये होंगी !
मेरे नन्हें हाथ पकड़ कर ,फफक फफक कर रोई होंगी !
मुझे खिलाने की चिंता में खुद भूखी रह जाती होगी
मेरी तकलीफों में अम्मा, सारी रात जागती होगी !
बरसों मन्नत मांग गरीबों को, भोजन करवाती होंगी !
सुबह सबेरे बड़े जतन से वे मुझको नहलाती होंगी
नज़र न लग जाए, बेटे को काला तिलक, लगाती होंगी
चूड़ी ,कंगन और सहेली, उनको कहाँ लुभाती होंगी ?
बड़ी बड़ी आँखों की पलके,मुझको ही सहलाती होंगी !
सबसे सुंदर चेहरे वाली, घर में रौनक लाती होगी
अन्नपूर्णा अपने घर की ! सबको भोग लगाती होंगी
दूध मलीदा खिला के मुझको,स्वयं तृप्त हो जाती होंगी !
गोरे चेहरे वाली अम्मा ! रोज न्योछावर होती होंगी !
रात रात भर सो गीले में ,मुझको गले लगाती होगी
अपनी अंतिम बीमारी में ,मुझको लेकर चिंतित होंगीं
बच्चा कैसे जी पायेगा ,वे निश्चित ही रोई होंगी !
सबको प्यार बांटने वाली,अपना कष्ट छिपाती होंगी !
अपनी बीमारी में, चिंता सिर्फ लाडले ,की ही होगी !
गहन कष्ट में भी, वे ऑंखें , मेरे कारण चिंतित होंगी !
अपने अंत समय में अम्मा ,मुझको गले लगाये होंगी !
मेरे नन्हें हाथ पकड़ कर ,फफक फफक कर रोई होंगी !
माँ!
तुम्हारे सज़ल आँचल ने
धूप से हमको बचाया है।
चाँदनी का घर बनाया है।
तुम अमृत की धार प्यासों को
ज्योति-रेखा सूरदासों को
संधि को आशीष की कविता
अस्मिता, मन के समासों को
माँ!
तुम्हारे तरल दृगजल ने
तीर्थ-जल का मान पाया है
सो गए मन को जगाया है।
तुम थके मन को अथक लोरी
प्यार से मनुहार की चोरी
नित्य ढुलकाती रहीं हम पर
दूध की दो गागरें कोरी
माँ!
तुम्हारे प्रीति के पल ने
आँसुओं को भी हँसाया है
बोलना मन को सिखाया है।
तुम्हारे सज़ल आँचल ने
धूप से हमको बचाया है।
चाँदनी का घर बनाया है।
तुम अमृत की धार प्यासों को
ज्योति-रेखा सूरदासों को
संधि को आशीष की कविता
अस्मिता, मन के समासों को
माँ!
तुम्हारे तरल दृगजल ने
तीर्थ-जल का मान पाया है
सो गए मन को जगाया है।
तुम थके मन को अथक लोरी
प्यार से मनुहार की चोरी
नित्य ढुलकाती रहीं हम पर
दूध की दो गागरें कोरी
माँ!
तुम्हारे प्रीति के पल ने
आँसुओं को भी हँसाया है
बोलना मन को सिखाया है।
माँ नहीं होती है जब तब वैसे तो कुछ नहीं
होता
पिताजी ऑफिस जाते है दादी माला फेरती है
मनु कॉलेज जाता है...सब कुछ होता है
पर जैसै फीका-फीका-सा लगता है
बिना शक्कर की चाय जैसा।
माँ नहीं होती है जब कोई डाँटता नहीं है,
मनु रात को जब देर से लौटता है
तब अधीर होकर बार-बार
खिडकी से कोई झाँकता नहीं है,
घड़ी की सुईयाँ बरछी-तलवार जैसी नहीं हो जातीं,
किसी की व्याकुल आँखो से अभी गिरा कि अभी गिरेगा
ऐसे अदृश्य आँसुओं की माला नहीं झूलती,
गले में अटके हुए रोने की आड़ में डाँट को पीकर
कोइ मनु से पूछता नहीं है "थक गया होगा, बेटा,
थाली परोस दूँ क्या ?"
माँ नहीं होती है जब सुबह वैसे ही होती है
पर पूजाघर मैं बैठी दादी को दिये की बाती नहीं मिलती,
भगवान को बूँदी के लड्डू का प्रसाद नहीं मिलता,
पिताजी को गंजी, बटुआ, चाबी नहीं मिलते,
रसोईघर में से छोंक लगाने की ख़ुशबू तो आती है
पर उस में जली हुई सब्ज़ी की गंध घुल-मिल जाती है,
पिताजी ऑफिस जाते है दादी माला फेरती है
मनु कॉलेज जाता है...सब कुछ होता है
पर जैसै फीका-फीका-सा लगता है
बिना शक्कर की चाय जैसा।
माँ नहीं होती है जब कोई डाँटता नहीं है,
मनु रात को जब देर से लौटता है
तब अधीर होकर बार-बार
खिडकी से कोई झाँकता नहीं है,
घड़ी की सुईयाँ बरछी-तलवार जैसी नहीं हो जातीं,
किसी की व्याकुल आँखो से अभी गिरा कि अभी गिरेगा
ऐसे अदृश्य आँसुओं की माला नहीं झूलती,
गले में अटके हुए रोने की आड़ में डाँट को पीकर
कोइ मनु से पूछता नहीं है "थक गया होगा, बेटा,
थाली परोस दूँ क्या ?"
माँ नहीं होती है जब सुबह वैसे ही होती है
पर पूजाघर मैं बैठी दादी को दिये की बाती नहीं मिलती,
भगवान को बूँदी के लड्डू का प्रसाद नहीं मिलता,
पिताजी को गंजी, बटुआ, चाबी नहीं मिलते,
रसोईघर में से छोंक लगाने की ख़ुशबू तो आती है
पर उस में जली हुई सब्ज़ी की गंध घुल-मिल जाती है,
पंछियों के लिए रखा पानी सूख जाता है
पंछी बिना दाने के उड़ जाते हैं
और तुलसी के पौधे सूख जाते है...
माँ नहीं होती है जब तब वैसे तो कुछ नहीं होता,
यानी कुछ भी नहीं होता है।
किसको चिन्ता किस हालत में कैसी है अब माँ
सूनी आँखों में पलती हैं धुंधली आशाएँ
हावी होती गईं फ़र्ज़ पर नित्य व्यस्तताएँ
जैसे खालीपन काग़ज़ का वैसी है अब माँ
नाप-नापकर अंगुल-अंगुल जिनको बड़ा किया
डूब गए वे सुविधाओं में सब कुछ छोड़ दिया
ओढ़े-पहने बस सन्नाटा ऐसी है अब माँ
फ़र्ज़ निभाती रही उम्र-भर बस पीड़ा भोगी
हाथ-पैर जब शिथिल हुए तो हुई अनुपयोगी
धूल चढ़ी सरकारी फाइल जैसी है अब माँ
सूनी आँखों में पलती हैं धुंधली आशाएँ
हावी होती गईं फ़र्ज़ पर नित्य व्यस्तताएँ
जैसे खालीपन काग़ज़ का वैसी है अब माँ
नाप-नापकर अंगुल-अंगुल जिनको बड़ा किया
डूब गए वे सुविधाओं में सब कुछ छोड़ दिया
ओढ़े-पहने बस सन्नाटा ऐसी है अब माँ
फ़र्ज़ निभाती रही उम्र-भर बस पीड़ा भोगी
हाथ-पैर जब शिथिल हुए तो हुई अनुपयोगी
धूल चढ़ी सरकारी फाइल जैसी है अब माँ
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