Saturday, February 24, 2024

उलझे हैं केश जैसे नागिनों का जाल कोई
तिरछी नज़र ये कटार लगने लगी।।

अधरों की लालिमा लजाये सूर्य का प्रताप
झुमके की आभा अनवार लगने लगी।।

दूधिया सा चाँद ढोये जैसे सुरमई साँझ
ओढ़नी भी तन को कहार लगने लगी।।

प्रीत की पड़ी फुहार चढ़ने लगा ख़ुमार
प्रियतमा भी रति-अवतार लगने लगी।।

~~~~ सुनिल #शांडिल्य

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