उलझे हैं केश जैसे नागिनों का जाल कोई
तिरछी नज़र ये कटार लगने लगी।।
अधरों की लालिमा लजाये सूर्य का प्रताप
झुमके की आभा अनवार लगने लगी।।
दूधिया सा चाँद ढोये जैसे सुरमई साँझ
ओढ़नी भी तन को कहार लगने लगी।।
प्रीत की पड़ी फुहार चढ़ने लगा ख़ुमार
प्रियतमा भी रति-अवतार लगने लगी।।
~~~~ सुनिल #शांडिल्य
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