Thursday, March 23, 2017
रात अभी तन्हाई की पहली दहलीज़ पे है
और मेरी जानिब अपने हाथ बढ़ाती है
सोच र
हा
हूँ
इनको थामूँ
ज़ीना-ज़ीना सन्नाटों के तहखानों में उतरूँ
या अपने कमरों में ठहरूँ
चाँद मिरी खिड़की पे दस्तक देता है
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