Wednesday, May 10, 2017

क़ायनात बूँद-बूँद रो रही है
सहाबों का कोई दरिया खा़ली हो रहा है
बदल रहा है सब कुछ
इस दिल में ख़ला की उम्र और बढ़ रही है

जब दो लोग दूर जाते हैं
वक़्त उनके दिलों की दूरियाँ बढ़ा देता है
मैंने मुदाम यही देखा है
वरक़-वरक़ मुझसे ज़िन्दगी यही कह रही है

आज और इक नया सफ़हा खुला
आज फिर उसपे रोशनाई उलट गयी
खो गयी एक पुरानी क़ुर्बत
क़दम-क़दम साथ तन्हाई चल रही है

कब तक साँसों में पिरो-पिरोकर
बदन का चिथड़ा-चिथड़ा सँभालूँ
रग-रग में दर्द को पनाह दूँ
कभी तो लगे ज़िन्दगी की शाम हो रही है

मैं उनके लिए जैसा अपना था
वैसा अपना मेरी ज़िन्दगी में कोई नहीं
मुझे ठोकरें ही सहारा देती हैं
खा़हिश कमज़ोर इमारतों-सी ढह रही है

क़ायनात बूँद-बूँद रो रही है
सहाबों का कोई दरिया खा़ली हो रहा है

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