Tuesday, May 30, 2017

दिन कट रहे हैं कशमकश-ए-रोज़गार में
दम घुट रहा है साया-ए-अब्र-ए-बहार में
आती है अपने जिस्म से जलने की बू मुझे
लुटते हैं नकहतों के सबू जब भी बहार में
गुजरा इधर से जब कोई झोंका, तो चौंककर
दिल ने कहा, ये आ गए हम किस दियार में
मैं एक पल को रंज-ए-फुरावाँ में खो गया
मुरझा गए हैं जमाने मिरे इन्तिज़ार में
है कुञ्ज-ए-आफियत, तुझे पाकर पता चला
क्या हुमहुमे थे गर-ए-सरे-रहगुज़ार में

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