शबनम से भीगे भीगे लब तेरे
और बदन महका हुआ सा है
पलकें झुकी हैं हया से पर क्यों
तेरा लहजा ख़फ़ा सा है
मासूमियत है तेरी आँखों में मानो
इक समंदर ठहरा हुआ सा है
बेमिसाल सा हुस्न है जैसे
मेराअक्स उभरा हुआ सा है
---- सुनिल शांडिल्य
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