तेरे सुर्ख गुलाबी
होठों की अब
परिभाषा क्या
कहती है
मनोनीत मन-मानस
की मेरी अब आशा
क्या कहती है
तुम अधजल गगरी
छलको ना यूं
तुम हो बसन्त
की शाख प्रिये
हो शब्द रहित
तुम चिर अनन्त
तुम हो यौवन की
मधुमास प्रिये
देख तुम्हारी
कंचन-काया
तुमको अदभुत
मेरी जिज्ञासा
ये कहती है!
---- सुनिल #शांडिल्य
No comments:
Post a Comment