धरा तुम कितनी मनोहर
प्रकृति की अनुपम धरोहर
हृदय में अपने समेटे
हिमशिखर,मरूधर,सरोवर।
तुम कभी श्रंगार करतीं
इन्द्रधनुषी बन गगन में
फिर कभी मनुहार करतीं
तितली बन उड़ती गगन में।
वन कहीं,उपवन कहीं
है चंचला सा मन तेरा
ताप भी है,शीत भी है
उघरा कहीं है तन तेरा।
---- सुनिल #शांडिल्य
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