झिलमिलाते दो नयन ये खींच लाए हैं कहां,
क्या है सच और क्या भरम कुछ सोच ना पाएं जहां,
कौन है जो व्यथित मन की ऐसी पीड़ा को हरे,
इक तुम्हारी चाहना है सागर हम कैसे धरे,,,
अधखुले नयनों से बोलो अश्रु हम कब तक बहाएं,
इस ह्रदय में जल रही अग्नि को हम कैसे बुझाएं,
डोर जब से बांध ली हमने सहज अनुराग वाली
सोम को पाकर गरल में किस तरह जीवन बिताएं,
टूटकर पतझड़ में जैसे पात रह रह के झरे,
इक तुम्हारी चाहना है सागर हम कैसे धरे,,,
मंदिरों में सिर झुकाया तब तुम्हें हमने था पाया,
भाग्य था कितना प्रबल लेकर तुम्हारे द्वार आया
~~~~ सुनिल #शांडिल्य
No comments:
Post a Comment