निपट अकेला इस दुनिया में डोल रहा मैं सारस,
तुझ बिन मेरा अरी संगिनी जीवन सूना नीरस।
पार गगन के कहाँ गई तू छोड़ मुझे धरती पर,
कण्ठ मेरा अवरुद्ध हो गया आवाजें दे देकर।
भरे हुए हैं निर्मल जल के नदियाँ और सरोवर,
पर मुझको तो प्यास बुझानी अपने आँसू पीकर।
नींद नहीं आती सपनों की गलियाँ भी अब सूनी,
मुझ विरही की विरह-वेदना बढ़ती हर दिन दूनी।
तड़प-तड़प कर ही कटते अब पल जीवन के सारे,
लगता मन को घेर रहे हैं आ-आकर अँधियारे।
अस्त हुई जाती है अब तो इस जीवन की संध्या,
समय पूर्व ही तोड़ रही दम हो आशाएँ वन्ध्या।
~~~~ सुनिल #शांडिल्य
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