रूह का बन्धन है यह तेरा मेरा
किसी डोरी का नहीं मोहताज है
सातों सुर बजते हैं दो दिलों में
पर किसी तीसरे को आती नहीं आवाज़ है
मेरी बांसुरी की धुन पर उड़ती सी हो तुम
जबकि बक्शे तुझे खुदा ने नहीं परवाज़ हैं
---- सुनिल शांडिल्य
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