ख्वाहिशों की इक नदी
बहती रही मनके अंदर मे
डूबते-उतरते रहे हम
सपनों के बवंडर मे
लगाता रहा मन गोते
भावनाओं के समंदर मे
ढुंढते रहे अंजानी मंजिल
भटकते किसी कलंदर से
जिन्दगी गुजरती रही ठिकाना न मिला
रहे मंझधार मे हरदम किनारा न मिला
---- सुनिल शांडिल्य
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