पिघलो और पिघलाती रहो
मेरी सांसो मे यू ही आती जाती रहो
ठंड की क्या है
बिसात जो मुझे छु भी ले
मैं अभी प्रेयसी की पनाहो में हूं
नशा छाया तेरे हुस्न का
सारी रात ना उतर पाया
बीती रात करवटों मे
ना उसे नींद आई
ना मुझे ख्वाब आया
भीग गया बदन दोनो का
ये देख सर्द रात भी खुद पे शर्माया
---- सुनिल शांडिल्य
No comments:
Post a Comment