बला की खूबसूरत थी
अधर के
दाहिन
से
थोड़ा नीचे
एक तिल को
घर
मिला था ।
जिसे देख चाँद
रातभर
जलता
और,
मैं चाँद से ।
सिहर उठती
आगोश
में
सिमट जाती,
अधर को जब भी छूता,
बालों को सहलाते
कानो
में
मैं कहता "प्रेयसी"
चांद उस क्षण
बादलों
में छुप जाता,
जल भुन जाता हो जैसे ।
---- सुनिल शांडिल्य
No comments:
Post a Comment