अति व्याकुल मन
तरस रहा पर्तिक्षण
वेदना के तप्त अग्नि में
जलता मन
ऋतू पावस की घनघोर घटा
बन
कब बरसोगे मेरे मिर्दुल तन.?
अल्ल्हड़ सरिता -सी
वेगवती जलधारा
पुलकित प्रवाहमान
चूमती चली थी किनारा
पथिक प्यासा
अतृप्त कंठ याचना भरी आशा
अमृतमय रसपान
आतुर-सी भाषा
बाबरी-सी बन
---- सुनिल #शांडिल्य
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