मैं बहता वरुणा का पानी
तू काशी की गंगा ।
मिलन तुम्हारा कर देता है
मेरे मन को चंगा ।।
तुझमें ही अस्तित्व ढूँढता
खुद अपने को खोकर ।
हाथ पकड़कर चलना चाहूँ
मैल मैं सारे धोकर ।
तू तो भरी है धान कटोरा
मैं हूँ भूखा नंगा ।
मिलन तुम्हारा कर देता है
मेरे मन को चंगा ।।
---- सुनिल #शांडिल्य
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