रूह को भिगो कर
इक ज़िस्म तराशा है,
चाँद को फ़लक से ज़मीं पे उतारा है,
तुममें ही डूब जाती हर शाम सुबह होने को,
इन सितारों से भी आगे जहान तुम्हारा है,
ख्वाबों सी लगती है तुम्हारी हर अदा,
गीतों में ढालकर, किस ने तेरा रुप निखारा है,
महक तेरे बदन की, जैसे चंदन की दुशाला है,
ये प्यास तेरी कभी ना बुझे,
तुझे इबादत की तरह जन्नत से पुकारा है,
तेरी मिसाल ना हो सके कोई,
किसी संगतराश ने जैसे अपने हाथों से तराशा है...
रूह को भिगो कर.....इक ज़िस्म तराशा है...
---- सुनिल #शांडिल्य
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