यूँ आहट न करो ख़्वाब घबरा के छुप जाएंगे
छेड़ो न पलकों को आंखों में चुभ जाएंगे
ऐसी नज़रों से न देखिए हमारी ज़ानिब
वरना लफ्ज़ सीने में ही रुक जाएंगे
शायद वो पत्थर भी ख़ुदा हो जाये
अगर हाथ बन्दगी को उठ जाएंगे
ये जुगनू तो हैं रात के मुसाफिर
सहर होते ही लुक जाएंगे
ले जाओगे भी तो कहाँ इनको
निशान दर्दों के वहाँ छुट जाएंगे
न छोड़ो इन्हें खुले मौसममें
चन्द वरके हैं कागज़ के ये तो फ़ट जाएंगे
कोशिश तुमभी करो हमभी करेंगे
जरा से फांसले हैं जो ख़ुद ही घट जाएंगे
छुपा लो कसकर इन्हें मुठ्ठियों में ही
वक़्त के खूबसूरत जर्रे नहीं तो सरेराह लुट जाएंगे
~~~~ सुनिल #शांडिल्य
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