Friday, March 8, 2024

पावस में जब पयस्विनी का रूप निखरता है 
नभ में वह आवारा चन्दा आहें! भरता है ।।

कभी बादलो में छुपता मायूस मलिन सा चेहरा 
कभी निकल कर श्याम घटा से सलिला पर आ ठहरा

कृष्ण-पक्ष में हो विलुप्त मन ऐसे भी तरसाये 
ज्यों भामिन का कंत अचानक परदेशी हो जाये 

शुक्ल पक्ष में नयी कलासंग दिनदिन बढ़ता है
पावस में जब पयस्विनी का रूप निखरता है 
नभमें वह आवारा चन्दा आहें! भरता है

नीरवता में मौन यामिनी युगयुग प्रणय लखी है 
नभ अटखेली देख इंदु की नदिया भी हरषी है 

एक धरापर एकगगन में साथ मचलते हैं 
कलकल करती सरित और शशि दोनों चलते हैं

शुभ्र चाँदनी सी बाहों में सिंधुगामिनी निखरे
जैसे रमणी की मुख आभा साथ पिया के बिखरे 

निर्जन वीरानों में हिमकर साथ गुजरता है। 
पावस में जब पयस्विनी का रूप निखरता है 
नभ में वह आवारा चन्दा आहें! भरता है।।

~~~~ सुनिल #शांडिल्य

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