Wednesday, September 4, 2024

वो निकल पड़ी है पर्वत से,कुछ चंचलसी कुछ निर्मलसी
सागर से मिलने की आस लिए,वो सूखी धरा भिगोती है

कभी वीररस का उन्माद लिए,कभी श्रृंगारों के सावन में
विरह गीतके बीहड़ में, वो तन्हाई में रोती है

बेचैनी के मरुस्थल में, रेतों का तूफ़ान लिए
एक अनबुझी प्यास है, अश्कों से लबको भिगोती है

~~~~ सुनिल शांडिल्य

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